Saturday, November 26, 2011

२६/११ के तिन साल बाद...!

26/11 भले हमारा 9/11 हो लेकिन राजनीति से बंटा हुआ भारत आज भी यह नहीं जानता कि उसे अपने दुश्मन का क्या करना चाहिए या जख्मों से ललुहान अपनी राष्ट्रवादी आत्मा पर किस तरह मरहम लगाना चाहिए.

मुंबई, यह ऐसा महानगर है जो कभी सोता नहीं, भले ही बाकी भारत झपकियां ले. मुंबई एक कभी न टूटने वाला सम्मोहन है, और यहां के  सम्मोहित मुंबईकर बताएंगे कि यह वह शहर है जहां सपने देखना जीवन है. तिन साल पहिले 26 नवंबर को यह शहर कट्टरवादी इस्लाम के विनाशकारी गुस्से की दहकती मिसाल बन गया. आंखों में नफरत की आग और हाथों में बंदूक लिए 10 नौजवान जिहादियों ने जब पूरे शहर को जैसे कब्जे में ले लिया और भारत के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया, तो एक निष्क्रिय राष्ट्र की सारी कमजोरियां भी उजागर हो गईं. करीब 60 घंटे तक कुछ सिरफिरे लोगों, जिनकी हरकतों का खाका पाकिस्तान में बैठे उनके आकाओं ने तैयार किया था, ने एक अरब से ज्‍यादा की आबादी वाले और विश्व की ताकत बनने की तमन्ना रखने वाले देश को कांपते, असहाय बंधक की तरह अपने कब्जे में कर लिया. आग की लपटों में घिरे ताजमहल होटल-अमेरिका में 9/11 के जलते टॉवरों जैसी अमिट छवि-की तस्वीर देश की स्मृति से कभी मिट नहीं पाएगी और उसकी शर्म भी.

मेरे जेहन में एक मुल्क की लाचारी का वह नजारा अब भी ताजा है. मैं मुंबई ब्यूरो के अनेक सहकर्मियों के साथ जबरन ली गई एक टैक्सी, क्योंकि मेरे होटल ने टैक्सी देने से मना कर दिया था, से हमले के शिकार ट्राइडेंट होटल के बाहर पहुंचा तो वहां पूरी तरह अफरा-तफरी का माहौल था. शहर के तत्कालीन पुलिस आयुक्त हसन गफूर अपनी सफेद एंबेसडर के सहारे पीठ टिकाए 34 मंजिला होटल को देख रहे थे, जैसे वे आसमान से किसी दैवी शक्ति के उतरने की प्रतीक्षा कर रहे हों. वे वैसे ही असमंजस में थे जैसे कि वहां मौजूद 150 रिपोर्टर और 200 से ज्‍यादा पुलिसकर्मी अपने बॉस से निर्देशों का इंतजार कर रहे थे. सुबह पांच बजे तक वे एक मूक प्रत्यक्षदर्शी की तरह मौजूद रहे. चेहरे पर सूनेपन के अलावा उनके पास बताने के लिए कुछ भी सूचना नहीं थी.

इस सबके बीच मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख के काफिले का अलग ही नजारा था, जो भीड़ को चीरकर वहां पहुंचा था. यह यात्रा उनके लिए अपमानजनक बन गई. अगले तीन दिन तक, जिसने भारत को हिलाकर रख दिया, इतिहास के सबसे लंबे आतंकवादी हमले का सीधा प्रसारण टीवी पर चलता रहा, जो हमलावरों और उनके प्रायोजकों के लिए खुशी की बात थी. इस्लामी आतंकवाद का सबसे ज्‍यादा दंश झेलने वाले देश भारत ने एक बार फिर घुटने टेक दिए. और हां, इससे दिखावे के लिए कुछ लोग नप भी गए-केंद्रीय गृह मंत्री, प्रदेश के  गृह मंत्री और मुख्यमंत्री. ऐसे लोग, जिनके जाने का नुक्सान बर्दाश्त किया जा सकता था.

तीन साल बाद, हम कहां हैं? और मुंबई के तथाकथित जोश को क्या हुआ? शहर विभाजित और संभ्रम में है, और शासन के ऊंचे हलकों में सब कुछ पहले ही जैसा चल रहा है. जनादेश पाने के बाद भी कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन को सरकार के गठन में दो हफ्ते लग गए. उनके दिमाग में एक सुरक्षित और मजबूत मुंबई नहीं थी, वे तो कमाई वाले मंत्रालयों के लिए लड़ रहे थे. दूसरी राजनीती पक्ष अपना अपना लगा के बैठी हैं , तो दूसरी ओर 26/11 हमले का जीवित चेहरा अजमल आमिर कसाब भारतीय न्याय व्यवस्था की आरामदेह भूलभुलैया के मजे लूट रहा है.

कहानी के भावनात्मक पक्ष में जाएं तो एटीएस के निर्भीक प्रमुख हेमंत करकरे की विधवा कविता करकरे अब भी यह जानना चाहती हैं कि उनके पति की मौत क्यों हुई. उधर कूटनीति मोर्चे पर नॉर्थ ब्लॉक के आला अधिकारी 26/11 के योजनाकारों पर दस्तावेज पर दस्तावेज तैयार करने में मशगूल हैं, लेकिन हमले की साजिश रचने वाले उस पाकिस्तान की सरपरस्ती में आराम से बैठे हैं, जो अब भारत की कमजोरियों से अच्छी तरह वाकिफ हो चुका है. आज मुंबई हमले की कहानी में दाऊद गिलानी उर्फ डेविड हेडली का नाम जब उछल रहा है तो एक बार फिर हमारे खुफिया तंत्र में खामियां उजागर हो गई हैं. हमारा काम अमेरिकियों ने किया.
 
अपने यहां 9/11 हमले के बाद अमेरिका खुफिया तंत्र की अहमियत अच्छी तरह जान गया है. हम यह कहते हुए कभी नहीं थकते कि 26/11 हमारा 9/11 है. लेकिन इसमें भारी अंतर है. 12 सितंबर को अमेरिका एक आत्मघाती आरोप-प्रत्यारोप के खेल में फंसा हुआ विभाजित देश नहीं था. यह गुस्से और देशभक्ति-हमारे देश में एक घिसा-पिटा शब्द-की भावनाओं से एकजुट हुआ देश था. तब यह लाल अमेरिका या नीला अमेरिका नहीं था. तब यह दुख में डूबा एक राष्ट्र जरूर था लेकिन सभ्यता के दुश्मनों को सबक सिखाने का उसने पक्का इरादा कर लिया था. जैसा कि ल मोंदे ने अपने संपादकीय में कहा था, ''आज हम सभी अमेरिकी हैं.'' दूसरी तरफ हमले के तीन साल बाद भारत राजनीति से बंटा हुआ देश है, जो नहीं जानता कि उसे अपने दुश्मन के साथ क्या करना चाहिए. हम आज भी उतने ही किंकर्तव्यविमूढ़ हैं, जितने साल भर पहले उस भयावह नवंबर की रात थे.


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